शिलाजीत पर अभी तक जितना मेरा अध्ययन है उससे मैं आप सभी को अवगत करा देना चाहती हूँ। मेरे संसाधन सीमित होने के कारण प्रचुर मात्रा में मुझे शिलाजीत उपलब्ध नहीं हो सकी जिसकी वजह से मैं पर्याप्त प्रयोग नहीं कर सकी। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि शिलाजीत का उचित प्रयोग वाकई चमत्कार दिखाता है।
अनम्लम च कषायं च कटु पाके शिलाजतु।
नात्युष्णशीतं धातुभ्यश्चतुर्भ्यस्तस्य सम्भवः।।.
इस परिभाषा के अनुसार किसी भी शिलाजीत में अम्ल नहीं होता, कसैलापन होता है जो विपाक में कटु हो जाता है। यह न ही गरम होती है न ही ठंडी। यह जिन धातुओं से उत्पन्न होती है उनका ही गुण ग्रहण कर लेती है। शिलाजीत मुख्यतः चार धातुओं से उत्पन्न मानी गयी है --सोना ,चांदी ,तांबा और लोहा। महर्षि सुश्रुत ने शिलाजीत की उत्पत्ति दो और धातुओं से मानी है-वंग और सीसा। कुल मिला कर ६ तरह की शिलाजीत अभी तक ज्ञात हैं। वास्तविक शिलाजीत में अनेक तरह की गन्दगी होती है। रेत -पत्थर- पत्ते आदि अनेक चीजे इसमें मिक्स होती हैं। शिलाजीत की अशुद्धियों को दूर करने के लिए सबसे पहले उसे सादे जल से धो लेना चाहिए। फिर शिलाजीत की मात्रा से दूना गरम जल लेना चाहिए। शिलाजीत गर्म जल में घुल जाती है और अशुद्धियाँ नीचे बैठ जाती है। ऊपर से जल निथार कर उसे धुप में सुखाने पर शुद्ध शिलाजीत प्राप्त होती है। अशुद्धियों को पुनः गरम जल में घोल देना चाहिए ताकि सारी शिलाजीत पानी में आ जाए और अशुद्धियाँ बिलकुल अलग हो जाएँ। अब इसी शिलाजीत को वातघ्न अर्थात वात को नष्ट करने वाली औषधियां ,पित्तघ्न अर्थात कुपित पित्त को नष्ट करने वाली औषधियां तथा कफघ्न अर्थात कफ को संतुलित करने वाली औषधियों के रस में भावना देकर उसकी रोगनाशक शक्ति को कई गुना बढाया जा सकता है। इस तरह से तैयार की हुई शिलाजीत खुद ही में रसायन बन जाती है। अत्यधिक बल प्रदान करने का गुण उसमें आ जाता है और रोगनाशक तो हो ही जाती है।
शिलाजीत का सेवन दूध के साथ करने से यह बुढापे को दूर करती है ,आयु-जनित रोगों को दूर करती है, शरीर को दृढ़ता प्रदान करती है ,शक्ति प्रदान करती है ,बुद्धि को तीव्र और स्मृति को भी दृढ करती है।
शिलाजीत को चरक संहिता के अनुसार निरंतर सात सप्ताह तक प्रयोग करने से यह उचित फल प्रदान करती है ,हमने अपने प्रयोगों में देखा कि इसे कम से कम सौ दिनों तक लगातार लेना ही श्रेयस्कर साबित हुआ। लेकिन इसे पांच रत्ती से कम तो कत्तई नहीं लेना चाहिए।
हर पर्वत की अपनी धातुएं होती हैं। अर्थात उस पर्वत का निर्माण जिन शिलाओं से हुआ है वह शिलाएं ही धातु को खुद में समेटे रहती हैं। सोना चांदी ताम्बा लोहा शीशा रांगा यही वे धातुएं हैं जो प्रकृति में बिखरी हुई हैं। यही धातुएं जब पत्थर बन जाती हैं तो उन पत्थरों का समूह पर्वत का आकार ले लेता है। ज्वालामुखी का पिघलना इन्ही धातुओं की वजह से होता है।इन धातुओं की शिलाएं जब सूरज की गरमी से तप जाती हैं तो वे पिघलती हैं और लाख जैसा द्रव उनमें से निकलता है। यही द्रव शिलाजीत कहलाता है।अभी तक इन्ही छः धातुओं की शिलाओं को पिघलते हुए देखा गया है। इसलिए छः प्रकार की शिलाजीत का वर्णन आयुर्वेद में मिलता है।
शिलाजीत को अपने रोग के अनुसार निम्न में से किसी एक में घोल कर पीना चाहिए -
दूध, सिरका, मांस-रस, जौ-रस, चावल का धोवन, गोमूत्र, या किसी औषधि का काढा।
शिलाजीत के सेवन के दौरान कब्ज पैदा करने वाली वस्तुओं ,नशा पैदा करने वाली वस्तुओं और भारी अनाज के सेवन का निषेध है।
शिलाजीत में गोमूत्र जैसी गंध आती है।
शिलाजीत के सेवन के दौरान पथरी की दवा के रूप मे प्रयुक्त किसी औषधि ,साग और शरबत का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
विधिपूर्वक प्रयोग होने पर शिलाजीत भयकर रोगों को बलात नष्ट कर देती है ,यह स्वस्थ मनुष्यों को भी विपुल शक्ति प्रदान करती है।
इन आलेखों में पूर्व विद्वानों द्वारा बताये गये ज्ञान को समेट कर आपके समक्ष सरल भाषा में प्रस्तुत करने का छोटा सा प्रयत्न मात्र है .औषध प्रयोग से पूर्व किसी मान्यताप्राप्त हकीम या वैद्य से सलाह लेना आपके हित में उचित होगा