कुछ दिन पहले एक सम्मानित हिंदी दैनिक में एक समाचार प्रकाशित था कि " अब परचून की दुकान पर नही बेच पाएंगे आयुर्वेदिक दवाएं " इस शीर्षक के अंतर्गत समाचार था कि सरकार इस पर कानून लाने जा रही है जिसके तहत दवाओं के गुणवत्ता मानकों का निर्धारण किया जाएगा।
मैं तभी से यह सोच रही हूँ कि अभी तक तो जड़ी बुटियों में पाए जाने वालेजीवन रक्षक तत्वों का तो निर्धारण ही नही हो पाया तो गुणवत्ता किस तत्व की निर्धारित करेगी सरकार।एक सामान्य चीज लीजिये - लौंग।लौंग में डैंड्रफ खत्म करने का भी तत्व है, लौंग में भीषण दर्द निवारक तत्व भी है ।लौंग में खांसी खत्म करने का भी तत्व है, बाल काले करने का भी, गैस नष्ट करने का भी, त्वचा को कांतिमय बनाने वाला भी और भोजन में स्वाद बढ़ाने वाला तत्व भी है।हमारे देश मे ऐसी अनुसन्धानशालायें तो अभी तक बनी ही नहीं जो इन तत्वों को अलग अलग पहचान सकें (क्योंकि सरकार के पास आयुर्वेदिक प्रयोगशालाओं के लिए फालतू धन नही है) तो गुणवत्ता निर्धारण आप किस चीज का करेंगे ? यही लौंग जो मसाले के रूप में इतनी महंगी मिलती है वह भी आप तक शुद्ध नही पहुंचती।इनका तेल पहले ही निकाल कर निर्यात कर चुके होते हैं व्यापारी।यही स्थिति ज्यादातर खुशबूदार मसालों और जड़ी बूटियों की है।
वैसे भी आयुर्वेदिक दवाएं यदि चूर्ण रूप में हैं तो 2 माह बाद उनकी क्षमता 60% तक कम हो जाती है।काढ़ा की लाइफ सिर्फ 24 घण्टे होती है।अवलेह की लाइफ एक ऋतु भर अर्थात 3 महीना।केवल आरिष्ट और आसव ही हैं जो जितने पुराने होंगे उतने ही गुणकारी होते जाएंगे।शहद और घी भी इसी श्रेणी में आते हैं कि जितने पुराने उतने अच्छे। लेकिन उनके गुण भी हर ऋतु के बाद परिवर्तित होते जाते हैं फिर सरकार मानकों का निर्धारण किस आधार पर करेगी।जबकि बड़ी बड़ी नामी कंपनियां कई वर्ष पहले का भी पैक किया हुआ चूर्ण ,अवलेह ,च्यवनप्राश बेचती है उन पर आपत्ति नही की जाती। सरकार गुणवत्ता मानकों के निर्धारण की आड़ में छोटे पंसारियों और वैद्य हकीमो जैसे औषधि निर्माताओं पर कुठाराघात करने की तैयारी में लग रही है।
मैं तभी से यह सोच रही हूँ कि अभी तक तो जड़ी बुटियों में पाए जाने वालेजीवन रक्षक तत्वों का तो निर्धारण ही नही हो पाया तो गुणवत्ता किस तत्व की निर्धारित करेगी सरकार।एक सामान्य चीज लीजिये - लौंग।लौंग में डैंड्रफ खत्म करने का भी तत्व है, लौंग में भीषण दर्द निवारक तत्व भी है ।लौंग में खांसी खत्म करने का भी तत्व है, बाल काले करने का भी, गैस नष्ट करने का भी, त्वचा को कांतिमय बनाने वाला भी और भोजन में स्वाद बढ़ाने वाला तत्व भी है।हमारे देश मे ऐसी अनुसन्धानशालायें तो अभी तक बनी ही नहीं जो इन तत्वों को अलग अलग पहचान सकें (क्योंकि सरकार के पास आयुर्वेदिक प्रयोगशालाओं के लिए फालतू धन नही है) तो गुणवत्ता निर्धारण आप किस चीज का करेंगे ? यही लौंग जो मसाले के रूप में इतनी महंगी मिलती है वह भी आप तक शुद्ध नही पहुंचती।इनका तेल पहले ही निकाल कर निर्यात कर चुके होते हैं व्यापारी।यही स्थिति ज्यादातर खुशबूदार मसालों और जड़ी बूटियों की है।
वैसे भी आयुर्वेदिक दवाएं यदि चूर्ण रूप में हैं तो 2 माह बाद उनकी क्षमता 60% तक कम हो जाती है।काढ़ा की लाइफ सिर्फ 24 घण्टे होती है।अवलेह की लाइफ एक ऋतु भर अर्थात 3 महीना।केवल आरिष्ट और आसव ही हैं जो जितने पुराने होंगे उतने ही गुणकारी होते जाएंगे।शहद और घी भी इसी श्रेणी में आते हैं कि जितने पुराने उतने अच्छे। लेकिन उनके गुण भी हर ऋतु के बाद परिवर्तित होते जाते हैं फिर सरकार मानकों का निर्धारण किस आधार पर करेगी।जबकि बड़ी बड़ी नामी कंपनियां कई वर्ष पहले का भी पैक किया हुआ चूर्ण ,अवलेह ,च्यवनप्राश बेचती है उन पर आपत्ति नही की जाती। सरकार गुणवत्ता मानकों के निर्धारण की आड़ में छोटे पंसारियों और वैद्य हकीमो जैसे औषधि निर्माताओं पर कुठाराघात करने की तैयारी में लग रही है।
शायद परचून की दुकान पर बिकने वाली ताजी आयुर्वेदिक दवाएं ही भारतवर्ष की 70%जनता की तकलीफें दूर कर देती है ।साथ ही जड़ी बूटियों का टूटा फूटा ज्ञान भी जन सामान्य में बनाये रखती हैं। अन्यथा जड़ी बूटियों पर टी शोध कार्य हो ही नही रहा।न ही सामान्य भाषा मे लिपिबद्ध किया जा रहा है।
उ0 प्र0 हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक "भारतीय औषधियां'' में स्पष्ट लिखा है कि सर्वाधिक जरूरत इस बात की है कि देसी जड़ी बूटियों की पहचान को सार्वजनिक पटल पर आम किया जाए।इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा ज्ञान मध्य और उत्तरी भारत में मुसहर जाति, बंगाल में मौल, बेदिया, बागदी, कैवर्त, पोड, चंडाल, कवरा और करंगा जातियों तथा बम्बई में चन्द्रा, भील और गामत जातियों के पास है।मध्यप्रदेश की आदिवासी और नागा जातियों को भी नही भूलना चाहिए।आज भी इन जातियों के पास जड़ी बूटियों का जितना अधिक और सटीक ज्ञान है वह लिपिबद्ध ज्ञान से कई गुना ज्यादा है।इन जातियों को जब भी धन की जरूरत होती है तो ये जड़ी बूटियों को जंगलों से लाकर किसी पंसारी या परचून की दुकान पर इन जड़ियों का स्थानीय नाम और गुण बताकर बेच देते हैं जिसका लाभ रोगियों को मिल जाता है।ये जातियां डाबर वैद्यनाथ आदि नामी गिरामी कम्पनियों के पास जड़ियाँ बेचने नही जाते।सरकारी फरमान से तो इन जातियों को धन प्राप्ति और आम जनता को स्वास्थ्य लाभ का ये रास्ता भी बंद हो जाएगा।हमारे आयुरशास्त्र तो 1500 साल की गुलामी की भेंट चढ़ ही गये हैं।
जड़ी बूटियों में अपमिश्रण यानी मिलावट करने वालों को भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से कठोर दंड देने का विधान था।विधान यह भी था कि अपने रोगियों के उपचार में गलती करने वाले चिकित्सकों को अर्थदण्ड भोगना होगा।दुर्भाग्य से आयुर्वेदिक चिकित्सा के ह्रास के साथ साथ इस दिशा में भी बड़ा परिवर्तन हुआ।कुछ तो अज्ञानतावश और कुछ जड़ी बूटी के व्यापारियों की मिलावट करने की प्रवृत्ति के कारण भेषजों में अपमिश्रण कई शताब्दियों से होता चला आ रहा है।मिलावट तो अलग है, कुछ व्यापारी ऐसे भी हैं जो निर्धारित मात्रा से कम औषधियों की पैकिंग बेचते हैं।मिलावटी जड़ी बूटियों का व्यापार बड़े व्यापक पैमाने पर बिना किसी भेदभाव के होता है अर्थात आम जनता को ही नहीं वैद्य, हकीम, औषधि निर्माताओं को भी शुद्ध जड़ी बूटियां नही मिल पातीं। चिरैता में कालमेघ के पत्ते मिला देना और जीरा के नाम पर गाजर का बीज दे देना आम बात है। जटामांसी और गुग्गल जैसी संवेदनशील और महंगी जड़ी बूटियां भी अर्क निकाली हुई मिल रही हैं।तो इनसे निर्मित औषधियां कितना कारगर होंगी ,खुद सोचिये।
अगर इस क्षेत्र में सरकार वाकई प्रभावी कदम उठाना चाहती है तो एक बाजार वह आयुष विभाग के अंतर्गत बनाये जहां प्राप्य और अप्राप्य सभी जड़ी बूटियां अपने मूल और विकसित स्वरूप में शुद्धता एवं पूर्ण गुणवत्ता के साथ मिल जाएं।जब कंपनियां वैद्य हकीम आदि चिकित्सक इस बाजार से जड़ी बूटियां लेकर दवा बनाएंगे तो वह ज्यादा कारगर होगी।आयुष विभाग के अधिकारी गण जड़ी बूटियों को उनके मूल स्थान से लेकर उचित तापमान एवं सफाई के साथ वैज्ञानिकों के निर्देशानुसार संग्रह कराएंगे तो एक ही छत के नीचे अद्भुत एवं कीमती खजाना एकत्र होगा।स्थानीय उपरोक्त वर्णित जातियों से भी इनका ज्ञान प्राप्त कर संग्रह होगा।यह सब आयुष विभाग करेगा तो लिपिबद्धता में भी आसानी होगी तथा दुर्लभ एवं लुप्त प्रायः औषधियों को संरक्षित एवं विकसित करने की दिशा में भी उत्कृष्ट कार्य हो सकेगा।अस्तु।
उ0 प्र0 हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक "भारतीय औषधियां'' में स्पष्ट लिखा है कि सर्वाधिक जरूरत इस बात की है कि देसी जड़ी बूटियों की पहचान को सार्वजनिक पटल पर आम किया जाए।इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा ज्ञान मध्य और उत्तरी भारत में मुसहर जाति, बंगाल में मौल, बेदिया, बागदी, कैवर्त, पोड, चंडाल, कवरा और करंगा जातियों तथा बम्बई में चन्द्रा, भील और गामत जातियों के पास है।मध्यप्रदेश की आदिवासी और नागा जातियों को भी नही भूलना चाहिए।आज भी इन जातियों के पास जड़ी बूटियों का जितना अधिक और सटीक ज्ञान है वह लिपिबद्ध ज्ञान से कई गुना ज्यादा है।इन जातियों को जब भी धन की जरूरत होती है तो ये जड़ी बूटियों को जंगलों से लाकर किसी पंसारी या परचून की दुकान पर इन जड़ियों का स्थानीय नाम और गुण बताकर बेच देते हैं जिसका लाभ रोगियों को मिल जाता है।ये जातियां डाबर वैद्यनाथ आदि नामी गिरामी कम्पनियों के पास जड़ियाँ बेचने नही जाते।सरकारी फरमान से तो इन जातियों को धन प्राप्ति और आम जनता को स्वास्थ्य लाभ का ये रास्ता भी बंद हो जाएगा।हमारे आयुरशास्त्र तो 1500 साल की गुलामी की भेंट चढ़ ही गये हैं।
जड़ी बूटियों में अपमिश्रण यानी मिलावट करने वालों को भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से कठोर दंड देने का विधान था।विधान यह भी था कि अपने रोगियों के उपचार में गलती करने वाले चिकित्सकों को अर्थदण्ड भोगना होगा।दुर्भाग्य से आयुर्वेदिक चिकित्सा के ह्रास के साथ साथ इस दिशा में भी बड़ा परिवर्तन हुआ।कुछ तो अज्ञानतावश और कुछ जड़ी बूटी के व्यापारियों की मिलावट करने की प्रवृत्ति के कारण भेषजों में अपमिश्रण कई शताब्दियों से होता चला आ रहा है।मिलावट तो अलग है, कुछ व्यापारी ऐसे भी हैं जो निर्धारित मात्रा से कम औषधियों की पैकिंग बेचते हैं।मिलावटी जड़ी बूटियों का व्यापार बड़े व्यापक पैमाने पर बिना किसी भेदभाव के होता है अर्थात आम जनता को ही नहीं वैद्य, हकीम, औषधि निर्माताओं को भी शुद्ध जड़ी बूटियां नही मिल पातीं। चिरैता में कालमेघ के पत्ते मिला देना और जीरा के नाम पर गाजर का बीज दे देना आम बात है। जटामांसी और गुग्गल जैसी संवेदनशील और महंगी जड़ी बूटियां भी अर्क निकाली हुई मिल रही हैं।तो इनसे निर्मित औषधियां कितना कारगर होंगी ,खुद सोचिये।
अगर इस क्षेत्र में सरकार वाकई प्रभावी कदम उठाना चाहती है तो एक बाजार वह आयुष विभाग के अंतर्गत बनाये जहां प्राप्य और अप्राप्य सभी जड़ी बूटियां अपने मूल और विकसित स्वरूप में शुद्धता एवं पूर्ण गुणवत्ता के साथ मिल जाएं।जब कंपनियां वैद्य हकीम आदि चिकित्सक इस बाजार से जड़ी बूटियां लेकर दवा बनाएंगे तो वह ज्यादा कारगर होगी।आयुष विभाग के अधिकारी गण जड़ी बूटियों को उनके मूल स्थान से लेकर उचित तापमान एवं सफाई के साथ वैज्ञानिकों के निर्देशानुसार संग्रह कराएंगे तो एक ही छत के नीचे अद्भुत एवं कीमती खजाना एकत्र होगा।स्थानीय उपरोक्त वर्णित जातियों से भी इनका ज्ञान प्राप्त कर संग्रह होगा।यह सब आयुष विभाग करेगा तो लिपिबद्धता में भी आसानी होगी तथा दुर्लभ एवं लुप्त प्रायः औषधियों को संरक्षित एवं विकसित करने की दिशा में भी उत्कृष्ट कार्य हो सकेगा।अस्तु।
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